भाषा वतांतृ - ncert.nic.in · भारतीय भाषा...

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जीवत ्संस्कृ तम—् भारतीयसंस्कृ तग्ामाणाम ्एकमनसुन्ानम्जीवन्त संस्कृ त— भारतीय संस्कृ तग्ामो ंका एक अनुसन्ान

Living Sanskrit— An Exploration into the Sanskrit Villages of India

संस्कृ तभाषा विश्व की प्ाचीनतम भाषा तथा अनेक भाषाओ ंकी जननी मानी जाती ह।ै आज संस्कृ त भाषा को बोलने एिं समझने िालो ंकी संख्ा बहुत ही कम रह गई ह ैककन्तु आज से कतु छ सौ साल पहले संस्कृ त जनसाधारण की भाषा हुआ करती थी। संस्कृ त िाङ््मय में विभभन्न स्थलो ंपर इसके प्माण भी प्ाप्त होत ेहैं लेककन कतु छ

समय बाद यह केिल शास्त्र एिं साकहत्य की भाषा बन कर रह गई, कतु छ समय पहले तो लोगो ंमें यह भ्ान्न् थी कक संस्कृ त भाषा केिल कम्मकाण्ड

की भाषा ह ैककन्तु ित्ममान समय में इस भ्ान्न् का उन्मूलन कर लोगो ंने इसका महत्त्व समझना शतुरू

ककया ह,ै तथा न केिल भारत में ही नही ंअवपततु विदेशो ंमें भी संस्कृ त भाषा के प्वत लोगो ंका रुझान बढ़ रहा है। प्ाथममक एिं माध्यममक भशक्ा के मरिभाषा समूरि में एक भाषा संस्कृ त भी ह।ै 12िी ंकक्ा तक विद्ालयो ंमें संस्कृ त कवितीय अथिा तकृतीय भाषा के रूप में पढाई जाती ह।ै संस्कृ त पढने िाले अधधकाशंतः संस्कृ त भाषा बोलने में ककिनाई अनतुभि करत ेहैं। ऐसी स्स्थवत में एन.सी.ई.आर.टी. विारा प्स्तुत पररयोजना के अन्ग्मत संस्कृ त की जीिन्ता के अन्षेण का प्यास ककया गया ह।ै जजससे ज्ात होता है कक ित्ममान में भी भारतिष्म में कतु छ ऐसे ग्ाम ह ैजहा ंपर लोग संस्कृ त भाषा में ही अपने विचार आदान-प्दान करत ेहैं। शैक्भणक भ्मण विारा विभभन्न संस्कृ त ग्ामो ंका अन्षेण करना, उपकरणो ंके विारा विषय से सम्बन्धित जानकारी एकमरित करना तथा संस्कृ तभावषयो ंसे िाता्मलाप के माध्यम से ग्ाम की िस्तु स्स्थवत को समझना। प्स्तुत पररयोजना के माध्यम से कना्मटक, मध्यप्देश, असम, उत्तराखण्ड, राजस्थान में स्स्थवत मत्ततुर, होशाहल्ी, मोहद, जझरर, गममरर, भन्ोला, ि कापेरन संस्कृ त ग्ामो ंमें जाकर संस्कृ त की िस्तुस्स्थवत का पता ककया गया। प्ायः सभी ग्ामो ं में संस्कृ त की िस्तुस्स्थवत 2008- 10 के आसपास अपने चरमोत्कष्म पर थी, ककन्तु ित्ममान में संस्कृ त की स्स्थवत अधोगामी ह,ै तथावप ग्ामिाधसयो ंमें संस्कृ त के पतुनरुत्ान के ललए

घरों म ें दनैिक वस्‍तुओ ंपर निनि्‍ ससंककृ ्‍ िाम (निरी ग्ाम)

घर की दीवारों पर निनि्‍ ससंककृ ्‍ वाक्‍य (निरी ग्ाम)

भन्‍तोिा ग्ाम के मतुख्‍य द्ार का नित्र

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अत्यधधक उत्ाह ह।ै लोगो ंने घर में विद्मान विभभन्न साममग्यो ंपर संस्कृ त भाषा में उनके नामो ंकी चचकटकाएं लगाई हैं। संस्कृ त प्योग के ललए ककसी जावत या धम्म विशेष का होना आिश्यक नही ंह।ै ग्ाम में सभी जावत तथा धम्म के लोेग संस्कृ त भाषा में बात करत े हैं। शैक्भणक दृवटि से पाया गया कक संस्कृ त को अनतुिाद की अपेक्ा

संस्कृ त माध्यम में सीखने से अधधगम शीघ्र एिं स्थायी होता ह।ै यकद बालक को भशक्ण सामग्ी विारा जसेै चचकटकाओ,ं दृटिान्/चचरि ि अन्य दृश्य-श्रव्य के साधनो ंसे संस्कृ त भाषा को धसखाया जाए तो अधधगम अधधक प्भािी होगा। एन.सी.ई.आर.टी. उपरोक्त ग्ामो ंमे संस्कृ त-काय्मशाला के माध्यम से संस्कृ तभाषा भशक्ण के उत्ान में सहायक धसद्ध हो सकती है।

भारतीय भाषाओं की अस्मिता और संकट–नामवर सिंह

मंच के सभी आदरणीय साधथयो, बहनो और भाइयो! बिेै-बिेै कई अच्छी बातो ंको सतुनत ेरकहए। मतुझ ेरहीम का िह दोहा याद आया, जो आप लोगो ंको भी जरूर याद होगा :

दोनो ंरकहमन एक से, जो ंलौ ंबोलत नाकह। जान परत है काक वपक, ऋततु बसन्न के माकह।।

इस दोह ेमें मतुझ े‘अस्मिता’ शब्द का अथ्म ममला। जब तक बोलत ेनही,ं तब तक सब एक जसेै मालमूम होत ेहैं। लेककन िे पहचाने तभी जात ेहैं जब िे बोलत ेहैं। इसका मतलब ह ैकक बोलने से– और अपने यहा ँभी यद्वप सभी लोग कहन्ी ही बोल रह ेथ,े अगर प्देश और भाषा का नाम नही ंबताया जाता, तब भी– उनके कहन्ी उच्ारण से आप पहचान सकत ेथ ेकक उनकी मातकृभाषा कौन-सी ह।ै मैं ‘पहचान’ शब्द का प्योग कर रहा हँ अभी। ‘अस्मिता’ शब्द का प्योग नही ंकर रहा हँ अभी। कहन्ी ंमें ‘अस्मिता’ शब्द पहले नही ंथा। 1947 से पहले की ककताबो ंमें मतुझ े

तो नही ंममला, और संस्कृ त में भी ‘अस्मिता’ का यह अथ्म नही ंह।ै ‘अहंकार’ के अथ्म में आता ह,ै जजसे दोष माना जाता ह।ै ‘आइडेंकटटी’ का अनतुिाद ‘अस्मिता’ ककया गया और कहन्ी में जहा ँमेरी जानकारी है, पहली बार अजे्य ने ‘आइडेंकटटी’ के ललए ‘अस्मिता’ शब्द का प्योग ककया ह।ै मरािी में ‘अस्मितादश्म’ नाम की पमरिका नागपतुर से वनकलती ह,ै दत्त लोग वनकालत ेहैं। लेककन हम पासपोट्म बनात ेहैं, तो क्ा कहते हैं– पहचान-परि। अस्मिता-परि कोई नही ंकहता उसे।

मैं बिेै-बिेै यही सोच रहा था कक ‘अस्मिता’ और ‘संकट’– इन दोनो ंशब्दो ं को

भन्‍तोिा ग्ाम के ितोग

मतुमत्तुर हतोशाहलिी के ससंककृ ्‍ भाषी सककू ि के बचिे

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भारतीय भाषाओ ंमें क्ा इसी रूप में स्ीकार ककया गया है? एक बहुत अच्ा काम होता ह,ै अगर हर आदमी अपनी भाषा में बताता कक हमारी भाषा में ‘अस्मिता’ को क्ा कहत ेहैं ? ‘संकट’ को क्ा कहते हैं?

अब एक शब्द ह ै‘संकट’। खतरे के ललए ‘डेंजर’ शब्द का प्योग करत ेहैं और संकट किर अनतुिाद ह ै ‘क्ाइसेस’ का। अभी गोविन् देशपाडें जी ने बताया कक कहन्ी में जजसे ‘संकट’ आप कहत ेहैं हमारे यहा ँिह ‘अररष्ठ’ शब्द ह।ै शब्द ह।ै और भी शब्द हो सकत ेहैं। अन्य भाषाओ ंमें इतनी विविधता ह,ै बहुलता ह।ै इसललए मैं शब्दो ं ेके विशे्षण में न जाकर पहली बात जो मतुझ ेमहत्वपमूण्म लगती ह,ै उसका पमूरा अहसास हम लोगो ंको नही ंह,ै या जजतनी गहराई से होना चाकहए नही ंह।ै

हर जनसमतुदाय की अपनी पहचान उसकी भाषा ह।ै उसके वबना िह भाषा केिल भाषा नही ंह,ै बल्कि िह भाषा ही उसकी संस्कृ वत भी ह ैऔर िह पहचान बनकर उसके साकहत्य और संस्कृ वत में समाई ह।ै यह इतनी दूर तक ह ैकक बोललयो ंतक से जतुडा हुआ ह।ै कहन्ी प्देश में आप देख रह ेहैं कक तीन राजे अभी नये बने हैं। मागँ अन्य बोललयो ंकी ओर से भी उि सकती ह।ै राजस्थानी क्ो ंनही ंउिा सकती ह?ै भोजपतुरी की है, अिधी की ह,ै ब्रज की ह,ै मैधथली बहुत कदनो ंसे आग्ह कर रही ह ै। हर भाषा में अलग-अलग समस्ा होती ह।ै स्यं कहन्ी ंप्देश बोललयो ंकी दृवटि से कवि-भाषी है। साकहत्य की रचना खडी बोली में करता ह ैऔर अपनी मा ँसे, दादी से, दादा से जजस बोली में बात करता ह,ै िह उसकी िेि गािँ की बोली होती ह।ै मसलन मेरी बोली भोजपतुरी ह।ै भोजपतुरी और खडी बोली, दोनो ंही बोललया ँिह बोलता ह।ै

अभी जजस बात की ओर इशारा कर रहा था, उस दृवटि से देखें तो भारत को बहुभाषी देश कहत ेहैं। अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। लेककन मैं इसके साथ यह कहना चाहता हँ कक भारत का हर आदमी एक लम्बी परम्परा से बहुभाषी ह।ै हमारे यहा ँजजनको अनपढ़ कहत ेहैं, िे भी– एक लम्बी परम्परा से इस देश में घमूमने के कारण, चाह ेतीथा्मटन के ललए जात ेरह ेहो,ं भ्मण के ललए जाते रह ेहो,ं एक लम्ब ेअरसे से एक साथ कम-से-कम कवि-भाषी तो हर आदमी है। तीन भाषाएँ, चार भाषाएँ िह बोलता ह,ै जानता है। यह बहुभावषकता हमारे यहा ँसंस्ारे में ह।ै

पहला जो मतुख् मतुद्ा ह ै जजस पर बडी चचा्म हुई थी– पहचान की। और िह पहचान, हर जनसमतुदाय की, हर व्यक्क्त की अपनी पहचान, पासपोट्म, उसकी भाषा ह।ै व्यक्क्त मतुँ ह खोलता ह ैऔर पहचान ललया जाता ह ैकक ककस क्रेि का ह।ै कहा ँसे आया है। ककस समतुदाय से जतुडा हुआ ह ै। इस पहचान में सिाभभमान जरूरी ह।ै लेककन इस पहचान में ‘अहंकार’ का शब्द भी जतुडता है। किर िह अहंकार बढ़ करके इस सीमा तक जाता ह ैजो देश के समतुदाय से अपने को अलग करने की सीमा तक ले जाता ह।ै इस पहचान का एक उदाहरण मैं दे सकता हँ कक हडप्ा नाम की संस्कृ वत, जो हमारे यहा ँकी सबसे पतुरानी संस्कृ वत कही जाती ह,ै आज तक मालमूम नही ंहो सका कक उसकी भाषा क्ा ह।ै यद्वप ममूर्तयो ंके, स्थापत्यत के अन्यमू जो उपकरण ममले हैं, उनसे उस संस्कृ वत की रूपरेखा बनाई गई। लेककन आज भी िह वििाद के दायरे में इसललए ह ैकक उसकी भाषा क्ा थी। भाषा के लोभ से इतना बडा संकट उतं्न्न होता ह ैकक पहचान लतुप्त हो जाती ह।ै हडप्ा सभ्यता की पहचान जरूरी ह ैआज भी, क्ोकंक उसकी भाषा नही ंमालमूम। िैकदक संसककृ वत की भाषा मालमूम ह,ै इसललए उसके बारे में विस्ार से चचा्म की जाती ह।ै इस प्संग में यह भी कहा गया ह ैकक भाषा लतुप्त होती ह ैककसी िजह से, तो लतुप्त होने के साथ लगभग िह पमूरी संस्कृ वत भी समाप्त होती है।

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भारतीय भाषा सिवेक्ण में जो समूची तयैार की गई ह,ै उसमें भाषाओ ंकी समूची अगर आप देखें, तो उसमें से अनेक भाषाएँ नही ंहैं यानी देखत-ेदेखत ेवपछले दो सौ िषषों में कई भाषाएँ लतुप्त हो गई हैं। इसललए एक बहुत बडा मतुद्ा ह।ै अभी डोगरी के बारे में कहा जा रहा था। कश्ीरी के बारे में चचा्म हुई थी कक िह भी उस कगार पर ह।ै जिाहरलाल नेहरू विश्वविद्ालय में एक गोष्ठी हुई थी-संविधान में जो आििी ंसमूची ह,ै उसको लेकर। उस आििी ंसमूची से यह धारणा बनती ह ैकक उसमें और उसके ललए अनेक भाषाओ ंने संघष्म ककया ह ैकक हमको शाममल ककया जाए। अनेक आकदिासी भाषाएँ ह,ै जजन्ेंे हम आकदिाधसयो ंकी भाषा कहत ेहैं, उनकी भाषाएँ उसमें शाममल नही ंहैं। कई भाषाएँ हैं, जो शाममल नही ंहैं। िह आगे चलकर बहुत बडा मतुद्ा वििाद का बन सकता ह।ै यद्वप आििी ंसमूची का उदे्श्य भाषाओ ंको मान्य ता देना नही ंह।ै दूसरे सन्भ्म 351 के धसलधसले में उसका उले्ख ककया गया ह।ै कहन्ी का राजभाषा के रूप में विकधसत और समकृद्ध करने के ललए जजन भाषाओ ंसे लेना चाकहए, उनकी समूचचया ँबनी ही नही ंहैं। उसका उदे्श्य भाषाओ ंको मान्यता देना नही ंह,ै लेककन उसकी हधैसयत लगभग यह हो गई ह ैकक आििी ंसमूची में जो भाषाएँ हैं, िे तो मान्यता-प्ाप्त हैं लेककन जो समूची में नही ंहैं, िे खास भाषाएँ ही नही ंहैं। उसमें झारखंड की अनेक भाषाएँ नही ंहैं, मतुं डारी नही ंहै, संथाली नही ंहै, छोटा नागपतुरी नही ंहै– अनेक भाषाएँ नही ंहैं।

एक शब्द इस्ेंमाल ककया गया है ‘अस्स्त्व’ का। जब तक उस अस्स्त्व को आप स्ीकार नही ंकरेंगे कक आप हैं, तब तक आपकी पहचान कैसे बनेगी? इसललए इस बीच दवुनया के पैमाने पर अनेक लोगो ंने कहा कक िह नया भमूमंडलीकरण ह ैऔर यमूरोप के लोग कह रह ेहैं कक ‘रेड इंकडयन’ की भाषा लगभग लतुप्त हो गई ह।ै अमेररका में यह स्स्थवत ह।ै हमारे यहा ँभी हो सकती है। इस देश में उदू्म की अस्मिता का संकट ह ैऔर िह संकट अनेक रूप ले रहा ह।ै जसैा कहा गया कक राजनीवत उसको तरह-तरह से इसतेमाल कर रही ह।ै उस जगह ले जाने की जरूरत नही ंह।ै हममें से अनेक लोग जानत ेह ैकक उदू्म की िीक से पढ़ाई भी नही ंहो रही ह।ै नतीजा यह ह ैकक उदू्म मदरसो ंमें पढ़ाई जा रही ह।ै जजन मदरसो ंका मकसद ह ैमदरसई करना। लेककन चमूँ कक उदू्म को पढ़ाने की व्यिस्था नही ंह ैइसललए बहुत बडे पैमाने पर ऐसा हो रहा ह।ै मैं कहना चाहता हँ कक भारतीय भाषाओ ंकी पहचान पर विचार करत ेसमय यह ध्या न में रखना चाकहए कक इसका दायरा बहुत बडा है। इस दायरे में केिल यह ही नही ंह ैकक भमूमंडलीकरण के कारण हम लोग कहन्ी ंया मानी हुई भाषाएँ भमूल जाएँ। जाादा बडा दायरा ह–ै भारतीय भाषाओ ंकी पहचान का।

भारत भाषाओ ंका संग्हालय या म्मूनजजम बन के न रह जाए, बल्कि िे भाषाएँ जो जीती-जागती, िलती-िमू लती रही हैं, सकदयो ंसे रही हैं, और हजारो ंसाल से रही हैं, िे विकधसत होती रहें। आकदिाधसयो ंकी भाषा कोई आज की नही ंह।ै इसललए उन भाषाओ ंके साथ, मैं कहँगा कक कभी-न-कभी अपनी भाषाओ ंकी बोललयो ंपर जरूर हमारा ध्यान जाना चाकहए, जजन्ें लोकभाषाएँ कहते हैं। लोकभाषाओ ंको भमूला करके साकहत्त्यक भाषाएँ

अपनी पहचान कायम नही ंरख सकती।ं पहचान का मतलब ह,ै उसी संविधान में कहा गया है कक कहन्ी विकास करे, समकृद्ध हो, सबसे ले। लेककन एक शब्द अगं्ेजी का इस्मेाल ककया गया ह-ै अपने ‘जीललयस’ को ध्यान में रखत ेहुए अथा्मत ्अपनी प्ककृ वत को न छोडकर िह समकृद्ध हो। दूसरो ंसे इतना न ले कक उसका स्भाि ही बदल जाए। पहचान एक बार ममल गई तो हमेशा कायम नही ंरहती ह।ै यह कोई जरूरी नही ंह।ै

आदमी खतुद कभी-कभी आतं्-विमि रण का भशकार होता ह ै और अपनी

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पहचान भमूल जाता है ऐसा नही ं ह।ै हमारे गतुरूजी कहा करत े थ े कक भारतीय संस्कृ वतएक ‘हुक्ा’ की तरह से है, जजसका पानी करोडो ंबार बदलता ह,ै जजसका नायचा बदला ह,ै चचलम बदली, नाररयल बदला,आग बदली, तम्बाकमू बदला, किर भी संस्कृ वत िही-की-िही ह।ै यह कौन-सी चीज है? एक हुक्ाल नाम की चीज बची ह।ै बाकी एक-एक करके हर चीज बदल गई ह।ै राजन जी ने एक महत्वपमूण्म तथ्य को रेखाकंकत ककया। अस्मिता जड नही ंह,ै स्स्थर नही ंह ैऔर यह भी नही ंह ैकक एक बार ममल गई तो बनी रहेगी। बदलती रहती है, बनने को। आज िही तममल नही ंहै, जो संगम काल की तममल हुआ करती थी। बदल गई ह ैन। कहन्ी स्यंे इतनी बदली ह,ै इतनी बदली ह ैकक हम बहुत से लोग पतुरानी कविता को आज समझ नही ंसकत ेहैं। बदलती ह,ै लेककन, उस बदलने के साथ यह भी जतुडा हुआ ह ैकक अस्मिता का प्श्न एक ओर ले जाएगा हमको, शतुद्धतािाद की ओर। जसेै नस्ल के बारे में शतुद्धतािाद बडा खतरनाक लब्ज ह।ै भाषा के बारे में भी शतुद्धतािाद जो ह,ै िह आपको ‘िाधससे्‘ बना देता ह।ै खमून शतुद्ध हो, उसी तरह आप समझेंगे कक भाषा भी शतुद्ध होनी चाकहए। टेलीविजन की कहन्ी की आलोचना को कतु छ सतुनता हँ तो मतुझ ेलगता ह ैकक कही ंिही पतुराना शतुद्धतािाद बोल रहा ह।ै कहन्ी तो बाजार से आई है। बाजारू कहन्ी, कलकत्ता और बम्बइया की जजस कहन्ी को आप बोल रहे हैं, बल्कि खडी बोली कहन्ीे तो खतुद कदल्ी के बाजार की कहन्ी है। इसललए बाजार से कहन्ी अशतुद्ध हो जाएगी और उसकी अस्मिता खराब हो जाएगी। मैं समझता हँ, यही कहनदी धमूल-धक्ड से, खेत-खललहान से, कल-कारखाने से, बाजार से बनी, वनकली हुई भाषा ह।ै आप उसे धो-पोछंकर, साबतुन लगाकर एक ही बना देना चाहत ेहैं– चमकती हुई। इसललए अस्मिता का सिाल इतना सीधा-सादा सरल नही ंह।ै

‘संकट’ की चचा्म करने से पहले हम समझें कक भाषायी अस्मिता भाषा बोलनेिालो ंकी अपनी पहचान ह।ै जजस भाषा को बोलत ेहैं, उसकी पहचान कैसे बचाई जाए या विकधसत की जाए और उस बदलती हुई पहचान के साथ िह सतुगकित कैसे बनी रह?े एकदम इतनी न बदल जाए कक स्यं िह भाषा न रह जाए। इस पहचान के धसलधसले में कतु छ सिाल उिाए गए हैं ललवप के बारे में। कहन्ी के बारे में लोग जानत ेहैं कक कहन्ी का आन्ोलन भाषा का आन्ोतुलन नही ंथा। 19िी ंशताब्दी में कहन्ी ंिालो ंकी मागँ थी। आज भी ह ैिह संस्था, जजसका नाम ह–ै ‘काशी नागरी प्चाररणी सभा’। लडाई नागरी ललवप की थी, बाद में भाषा की बन गई। पंजाबी जतुडी हुई है गतुरुमतुखी ललवप के साथ। एक जमाना था कक पंजाबी की बहुत सारी चीजें उदू्म ललवप में ललखी जाती थी। अखबार उदू्म में वनकलत ेथ।े भाषा पंजाबी हुआ करती थी। कतु छ लोग नागरी ललवप में ललखा करत ेथ।े ललवप और भाषा का कभी-कभी इतना अटमूट और गहरा संबंध होता ह।ै एक बार यह मागँ उिी थी कक उदू्म कक ककताबें कहन्ी ललवप में ही ललखें। ऐसा कहने िाले कहन्ी िाले भमूल जात ेहैं कक एक जमाने में सतुदीप कतु मार चटजजी की नही,ं बल्कि हाल ही में 19िी ंसदी में अगं्ेजी की जजतनी ककताबें व्याकरण की ललखी गई हैं, कोस्म की, िह रोमन में ललखी गई हैं। उस समय आपको बडा अखरा था, रोमन ललवप में ललखना। उदू्म िालो ंसे आप कहत ेहैं कक आप उदू्म ललवप छोड दो। भाषा की पहचान का गहरा सम्बनध उसकी ललवप से भी ह।ै ध्ववनयो ंके ललए तममल ललवप कािी ह।ै आप नही ंकह सकते कक तममल साकहत्य नागरी में ललखा जाए। बागं्ा से नही ंकह सकत ेआप अपनी ललवप बदले दें। इतनी मतुल्किल ललवप होत ेहुए भी चचरि-ललवप ललखी है चीवनयो ंने। रोमनाइजशेन नही ंस्ीकार ककया जापान ने। भारतीय भाषाओ ंने ललए कहेंगे आप?

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ललवप से भाषाओ ंका गहरा सम्बधि है क्ोकंक एक संस्कृ वत के दौरान िे विकधसत हुई हैं। और धीरे-धीरे उसने एक पहचान बना ली है। रोमन ललवप में ललखी हुई संस्कृ त ककताबो ंको पढ़ने से ऐसा लगता है कक मैं संस्कृ त नही ंपढ़ रहा हँ, अंगे्जी पढ़ रहा हँ। बहुत-सी ककताबें हैं। आपको याद होगा कक जब ऋग्ेंद का मैक्सनममूलर ने सम्पादन करना शतुरू ककया था, सिाल उिा था कक इसे रोमन में छापा जाए या संस्कृ त में। उन्ोनें कहा क क नही,ं यह उसी ललवप में छपेगा, नागरी ललवप में। इसललए भाषा के साथ ललवप भी जतुडी हुई है। एक भाषा ऐसी है जो साकहत्य अकादमी विारा मान्यता-प्ाप्त है। सम्ािना है, संविधान में भी मान्य हो। कोकंणी चार ललवपयो ंमें ललखी जाती है– रोमन, नागरी, कननड और मलयालम। यहा ँबहुत बडा मतुद्ा है कक साकहत्य अकादमी ने उसे नागरी ललवप में मान्य ककया है। लेककन बडी मागँ उि रही है कोकंणी में क क साहब, आप ललवप के कहसाब से क्ो ंबाटँना चाहते हैं? मैंने उन समस्ाओ ंकी ओर आपका ध्यान आकर्षत ककया है, जो भारतीय भाषाओ ंकी अस्मिता की हैं। सभी भाषाओ ंकी अस्मिता का सिाल एक जैसा नही ंहै, कतु छ सामान्य है, लेककन प्त्येंक भाषा की या भाषायी अस्मिता की अपनी अलग-अलग समस्ाएँ हैं। पंजाबी की समस्ा िह नही ंहै, जो कश्ीरी की होगी या जो कश्ीरी की समस्ा है, िह डोगरी की नही ंहोगी। कतु छ अलग-अलग समस्ाएँ भी हैं और ब्ौरे में करके प्तेे्यक समस्ाा को देखना होगा। उसी तरह से। मैंने कहा कक अगर उदू्म आप देखते और यहा ँउदू्म का िक्ता ंहोता तो बताता उदू्म की पहचान की समस्ा और भाषाओ ंसे प्ाइम इंकडयन लैंग्ेज उसी तरह से उदू्म है, जैसे कक कहन्ी है, संस्कृ त है। बािजमूद इसके उस भाषा की जो स्स्थवत है, उसके संकट की अपनी अलग कतु छ और विशेष समस्ाएँ हैं– अन्रूनी।

दूसरा सिाल संकट का ह ैयानी ‘क्ाइसेस’ का। उस संकट में हर संकट की तरह से कतु छ बाहरी संकट होत ेहैं, कतु छ भीतरी संकट भी होते हैं। महत्वपमूण्म और जादा खतरनाक होता ह,ै जो आन्ररक संकट है। मैं देशपाडें साहब से पमूरी तरह से सहमत हँ इस मामले में कक भारतीय भाषाओ ंके ललए जो सबसे बडा संकट ह,ै िह स्यं इस देश के अन्र ही मौजमूद ह।ै इसी देश के अन्र ह।ै क्ोकंक, भाषा की गहरी पहचान का सम्बधि होता ह–ै सत्ता। भाषा सत्ता भी है, ताकत भी ह।ै सत्ता केिल पहचान ही नही ंदेती है, ताकत भी देती है, और बनाती भी ह।ै आम तौर से राजसत्ता के ललए। राजसत्ता इस बात को अच्छी तरह समझती ह ैकक भाषा उसके ऊपर बहुत बडी ताकत ह,ै जसेै राजकाज का काम भाषा से होता ह।ै िारसी राजभाषा हुई थी। अकबर ने नही ंबनाई थी। िारसी राजभाषा बनाई थी राजा टोडरमल ने। उन्ोनंे कहा कक यह होना चाकहए। माल के महकमे का काम इसललए देखेंगे कक माल का सारा काम-धाम इसी से होता ह।ै सच पमूछो तो, पेशिे के जमाने में जजसे ब्राह्मणिाद कह रह ेथ,े गोविन् देशपाडें जी, तो मतुझ ेयाद आया कक उस जमाने में भले ही िे कदल्ी के बादशाहो ंसे लडत ेरह ेहो,ं लेककन उनकी भाषा तो िारसी

थी, मरािी नही ंबनाई थी उन्ोनंे। क्ो ंनही ंबनाई थी मरािी? और यही िजह ह ैकक मरािी में िारसी के इतने शब्द हैं। कभी-कभी हम चचन्न्त होत ेहैं कक ये कहनदी में हैं। बाद में पता चला, कोशो ंको देखने के बाद कक बागं्ा में िारसी शब्दी इतने जादा हैं, क्ोकंक िहा ँनिाबी बहुत कदनो ंतक रही। मरािी में इसललए इतने जादा हैं कक मरािी में पेशिे के जमाने में कोट्म-लैंग्ेंज िारसी थी। जजन भाषाओ ंमें कम हैं और अगर ढमूँ ढ़ने लगें तो ममलेगा कननड में बहुत हैं। हदैर अली, टीपमू सतुल्ान के जमाने से लेकर कननड में बहुत हैं। उसी तरह तेलगमू में हैं।

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िारसी बहुत खमूबसमूरत भाषा है। महान काव्य ललखा गया ह ैउन कदनो।ं ईरान की पमूरी-की-पमूरी संस्कृ वत वबना िारसी के नही ंसमझी जा सकती। बािजमूद इसके, कहन्सु्ान में िारसी राजभाषा बनी। राजसत्ता का अथ्म ही ह ैकक ऐसी भाषा में राज करो जजसे आम जनता न समझ।े इस धसलधसले में, मैं अक्सर कहा करता हँ कक कनै्या लाल मतुं शी का एक उपन्यास ह ै: ‘गतुजरात के नाम’। उसमें रानी, राजा से कहती ह ैकक– धसद्धराज जयधसहं जब नया-नया नौजिान राजा हुआ तो उसे चचन्ा हुई कक िह घर-घर जा करके लोगो ंका द:ुख-दद्म दूर करे। जनता के बीच जाकर। जसेै बहुत से जाते हैं, जनता का कल्ाण करने के ललए पदयारिा करत ेहैं। उसको समूझी कक पदयारिा करे। उसकी मा ँने कहा कक देख, समूरज को देखता ह ैतमू, ऊँचाई पर ह,ै इसललए लोग जल चढ़ात ेहैं और प्णाम करत ेहैं। जजस कदन समूरज को लगे कक िह हर घर के चमूल्े ेमें पहँचकर आग जलाया करे और हर घर के आले में पहँुचकर दीया बन जाए तो लोग िमूँ क करके बतुझा देंगे और पानी डालकर चमूल्े को िंडा कर देंगे। दूर रह। जजतना दूर रहगेा, उतना ही प्ताप होगा, आतंक रहगेा। ताकत हमेशा ऐसी भाषा इस्ेमेाल करती ह ैजो साधारण लोगो ंकी समझ में न आए। उससे अलग होगी, तभी ताकत होगी। अगर उस भाषा में काम होने लगेगा तो ताकत उसकी कमजोर हो जाएगी, खत् हो जाएगी। इसललए इस देश का एक ताकत िाला जो िग्म पैदा हुआ ह,ै जजसको मोटे तौर से ब्राह्मणिाद कहा गया, जजसको आप मध्यिग्म कह सकत ेहैं, जजसमें हमारी नौकरशाही भी ह।ै अिसर िग्म ह।ै बडे व्यायपारी िग्म के लोग हैं। यह सारे-के-सारे लोग, बहुत बडा तबका, इन पचास िषषों में पहलेजो बहुत छोटा मध्य िग्म हुआ करता था, िह बहुत बडे पैमाने पर लगभग पचास िीसदी से जादा बढ़ गया ह।ै यह िग्म जरूर चाहेगा कक ऐसी भाषा का िच्मस् हो, जो आम जनता की भाषा न हो।

भारतीय भाषाओ ंका संकट इसललए आन्रेरक ह।ै देश के भीतर ह।ै और दभुा्मग्य से इस बीच जसैा आर्थक विकास हो रहा ह ैहमारा, उस आर्थक विकास के चलत,े िक्ताओ ंमें से एक आदमी ने कहा कक पचास साल के लगभग भाषा के मामले में हम लोग एक कदम आगे बढे़ थ ेऔर दो कदम पीछे जा रह ेहैं । सन ्1947 में जो लोग अपने विद्ालयो ंमें गए होगंे, िे जानत ेहैं कक कॉलेज में हम लोग ‘यस सर’ बोलत ेथ ेऔर पहली बार ‘श्रीमान’ या ‘उपस्स्थत महाशय’ कहने पर गैर हाजजर कर कदया था कक नही?ं यहा ँऐसा बोलना पडेगा। यह पहली प्वतकक्या थी। विद्ोह हुआ। ममरिो, काशी कहनू् विश्वाविद्ालय के कदन मतुझ ेयाद हैं। उस समय अचानक तजेी से बहुत गहरा सदमा ‘पहचान’ का और भाषा के ‘संकट’ से लडने का था। हम ताजा-ताजा स्तंरि हुए थ।े स्ाधीनता की भािना थी अपनी भाषाओ ंके प्वत। इतनी पमरिकाएँ वनकली थी ंभारतीय भाषाओ ंकी। लोकभाषाओ ंऔर बोललयो ंकी ओर इतना ध्यान कदया था, मतुझ ेयाद ह।ै िासतुदेि शरण अग्िाल और राहुल साकंकृ त्यायन ने ‘जनपद कल्ाणी आन्ोलन’ चलाया था। यह उत्ान था, अगं्ेजजयत को नकारने का। भाषा-प्मे, गहरा भाषा-प्मे तममल में और बागं्ा भाषा में जजतना ह,ै अन्यरि कम पाया जाता है। यहा ँशतुरू ककया गया था कक प्ाइमरी में भशक्ा का माध्यम जो होगा, बागं्ा होगी, अगं्ेजी भी होगी। दूसरा उदाहरण कदया गया था एक अन्य प्देश का, िहा ँअगं्ेजी लौट करके आ गई। इसललए इवतहास का चक् कभी-कभी उलटा भी चलता है, हमेशा आगे नही ंचलता।

अनेक मामलो ंमें, जजस तरह से अपने विकास का जो मॉडल हमने अपनाया था, जजस तजेी से हम लोग वनजीकरण, उदारीकरण और विदेशी पमूँजीवनिेश की ओर बढ़त ेचले जा रह ेहैं, केिल, यह कहकर नही ंटाला जा

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सकता ह ैकक हमारे ऊपर थोपा गया हैं। हम स्ीकार करते हैं। हमी ंलोग स्ीकार करते हैं । हमारे ही देश के लोग, हमारे देश का एक शासक िग्म ह,ै जो लगातार स्ीकार कर रहा है और शासक िग्म ही नही,ं क्मा कीजजए, मैं कहँ कक केिल आज की राजसत्ता में बिैी हुई सरकार ही नही ंह,ै बल्कि विरोध में बिैी हुई सरकार भी उसमें शाममल है। सच्ाई, इस देश में आर्थक नीवतयो ंके मामले में आप देखें तो, विचचरि बात ह ैकक कोई विरोध पक् नही ंह।ै शमून्य ह।ै इसीललए भाषा के मामले में भी शासक िग्म में बडा गहरा तालमेल ह।ै चाह ेिे विरोध में बैिने िाले सासंद हो ंया सत्ता में बिैने िाले सासंद हो। यह बडा संकट ह,ै जजसकी ओर प्ोिेसर गोविन् देशपाडें इशारा कर रह ेथ ेकक बाहरी दशु्न से कैसे लडा जाता है, यह डेढ़ सौ साल में हमने सीख ललया। गाधंी जी ने हमें लडने का रास्ा बताया ह।ै हमने यह भी देख ललया ह ैकक बाहरी दशु् न से उडना उतना मतुल्किल नही ंहोता, जजतना घर के दशु्न से लडना होता ह।ै क्ोकंक उसमें द:ुख-दद्म ह।ै जसेै घर के बाहर तो हम लड सकत ेहैं लेककन घर के अन्र ही वपता-पतुरि में, भाई-भाई में जब थडेी अनबन होती है तो िह संघष्म बडा रिासद होता है, बहुत ही घकृभणत होता है।

लगभग भाषा के मामले में, संस्कृ वत के मामले में नही,ं बल्कि पमूरे ऐवतहाधसक दौर में, इस बात की ओर बार-बार इशारा कर रहा था कक इन्ॉ्रमेशन टेक्ोलॉजी दशु्न नही ंह,ै मीकडया दशु्न नही ंह।ै ये ऊपरी चीजें हैं। हम लोगो ंको गतुमराह करने के ललए ककया जा रहा ह।ै उस रूप में कहँ तो बाजार भी दशु्न नही ंह।ै बाजार का इस्मेाल जजस रूप में हो रहा ह,ै जजस तरह के बाजार का प्िेश ककया जा रहा ह,ै जो बाजार केिल कतु छ लोगो ंके ललए है, बाकी लोग बाजार से बाहर हैं, बाकी हम लोग ‘विडंोशॉवपगं’ करने िाले हैं। ‘विडंो’ के अन्र क्ा है, उसे खरीदने की ताकत रखनेिाले लोगो ंका बाजार और ह।ै हमारा बाजार तो कभी-कभी हफ् ेमें, जो सडक पर लगा रहता ह,ै अनेक कॉलोवनयो ंमें लगभग उस बाजार की व्यिस्था है।

इसललए उस संकट की, किर मैं कहता हँ कक अब तक की भाषाओ ंका जो इवतहास रहा ह ैजजस देश में संस्कृ त जसैी ककिन, जो केिल व्याकरण पढ़कर ही जानी जा सकने िाली भाषा ह।ै पाचँ हजार साल का इवतहास अगर संस्कृ त को नही ंमार सकता तो, मैं कहता हँ कक जो भाषा लोगो ंकी जबान पर ह,ै मा ँके दूध के साथ सीखा ह,ै इसको कोई भमूमंडलीकरण मार नही ंसकता। इस देश में ‘ऋग्दे’ को पढ़ते हुए और िैकदक ऋचाओ ंको पढ़ते हुए याद आता ह ैकक ककस तरह लोगो ंने अब तक इनको बचा के रखा है। प्तीक ह ैभाषा, िह हमारी अमनि ह ैजजसको हमने बचा रखा ह।ै इसललए भारतीय भाषाओ ंके अस्स्त्व को तो कोई संकट है ही नही।ं और उनकी पहचान कायम रह।े सारे पररित्मनो ंके बािजमूद कायम रह।े यह स्यं हर भाषा-भाषी समतुदाय की अपनी ऊजा्म, अपनी ताकत और संघष्म पर वनभ्मर ह।ै जो जनता लड करके, अगं्ेजो ंको भगा करके आजादी ले सकती ह,ै मतुझ ेपमूरी उम्ीद ह,ै गाधंी के देश की जनता इतनी मतुदा्म नही ंहो जाएगी कक विदेशी या परदेशी या स्रदेशी से,जो हमारी संस्कृ वत के विरुद्ध

ह,ै उसके सामने घतुटने टेक दे। संकट िह घडी ह,ै जजस दौर से हम गतुजर रहे हैं। मैं सियं अपने भीतर यकद

आशा की िह ककरण नही ंदेख रहा हँ तो आपको झिूी आशा-कदलासा तो मैं नही ंकदला सकता। लेककन मैं इतना जानता हँ, यह जीिनीशक्क्त ह।ै िह जीिनीशक्क्त कतु छ कदनो ंके ललए मद्धम होती कदखाई पडी। लेककन इन भाषाओ ंसे बोलनेिालो ंकी ताकत ही नही–ं हर भाषा की िाणी होती ह,ै उसके कवि होत ेहैं, लेखक होत ेहैं, साकहत्यकार होत ेहैं, कथाकार होत ेहैं, नाटक, रंगमंच, किल्ें- ये सारे साधन होत े

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हैं। अगर साकहत्य इन भाषाओ ंका मतुदा्म नही ंहुआ तो तय समजझए कक कोई सरकार ककसी भाषा को नही ंमार सकती। इन भाषाओ ंमें रचना होती रहगेी, ललखा जाता रहगेा- चाह ेये राजभाषा बनें या न बनें।

कहन्ी नही ंथी राजभाषा, किर भी उसमें कबीर हुए, ततुलसी हुए, समूर हुए, मीरा हुई, प्मेचन्, वनराला हुए। उसी तरह से हर कवि में, राजभाषा तो नही ंबनी थी तममल, जब सतुब्रह्मण्य हम भारती हुए। राजभाषा तो नही ंबनी थी बागं्ा, जब रिीन्द्र नाथ टैगोर हुए, दवुनया ने माना और उन्ें नोबल पतुरस्ार ममला। राजभाषा बने या न बने, सरकार माने या न माने, कोट्म-कचहरी में चले या न चले, लेककन अगर उस भाषा में साकहत्य ललखा जा रहा है तो िह भाषा जीवित रहगेी, विकधसत रहगेी। मैं समझता हँ कक उसे मारनेिाली ताकत दवुनया में कोई पैदा नही ंहोगी।

—( िाभार, द्ाभा, िंपादक सवजय प्रकाश सिंह, राज कमल प्रकाशन

Bird's Eye View

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Dialogue-Students from Delhi UniversityNiharika GuptaVandanaRachunguangliu KameiNikita SharmaSimranSukanya KharAmanAyesha RehanAnmol rai Aaryama RastogiVineetaRaj Singh CharanGopika MohanMahipal Charan

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Languages There are no handles upon a language

Whereby men take hold of it And mark it with signs for its remembrance.

It is a river, this language, Once in a thousand years

Breaking a new course Changing its way to the ocean.

It is mountain effluvia Moving to valleys

And from nation to nation Crossing borders and mixing.

Languages die like rivers. Words wrapped round your tongue today

And broken to shape of thought Between your teeth and lips speaking

Now and today Shall be faded hieroglyphics

Ten thousand years from now. Sing—and singing—remember

Your song dies and changes And is not here to-morrow

Any more than the wind Blowing ten thousand years ago.

— Carl Sandburg